मृत्यु भोज किसे कहते हैं और क्या हमें मृत्युभोज खाना चाहिए या नहीं

 

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आजकल मृत्युभोज की बहस सोशल मीडिया में काफी छाई हुई है। 

हर जगह लोग मृत्युभोज के पक्ष व विपक्ष में अपने अपने तर्क दे रहें हैं। 

कई लोगों का मानना है कि मृत्युभोज़ समाज में व्याप्त एक बुराई है और इसे खत्म होना चाहिए क्युकी एक तरफ तो लोग किसी अपने को खो देने के दुख में परेशान होते हैं और ऊपर से मृत्युभोज का बेवजह खर्चा।

तो आज हम विस्तार से जानेंगे की मृत्युभोज अथवा तेरहवीं की शुरुआत कब से हुई, मृत्युभोज कहते किसे हैं, 

मृत्युभोज खाने से क्या होता है, तेरवहीं में क्या दान करना चाहिए इत्यादि!

 

मृत्यु भोज खाना चाहिए या नहीं

सबसे पहले हमे समझना होगा कि मृत्युभोज क्या है और इसके पीछे क्या कारण है। 

जैसा कि हम जानते है कि हिंदू जीवन में सोलह संस्कार होते हैं और सोलवां संस्कार अंतिम संस्कार होता है, 

अंतिम संस्कार के तेरवाहे दिन ब्राह्मणों, मान्यजनो व कुछ रिश्तेदारों को सामाजिक रूप से भोजन कराया जाता है जिसे हम तेरहवीं या मृत्युभोज  कहते हैं। 

यह हम सब को पता है कि मरने के बाद इंसान के शरीर में तरह तरह के जीवाणु एवं विषाणु उत्पन्न हो जाते है जिससे कि बीमारी फैलने का खतरा बढ़ जाता है। 

बीमारी को फैलने से रोकने के लिए ही पुराने समय में जब तक मृतक के घर की सफाई ना हो जाए, 

वहां जाना और किसी को छूना वर्जित माना जाता था जिसे सूतक कहा जाता है। 

जब घर को हवन व पूजा हो कर शुद्ध किया जाता था तभी मृतक के घर में आना जाना शुरू होता था। 
 
परिवार में मृत्यु होने पर लोग बहुत दुखी होते है, और दुख के बारे में सोच सोच कर बीमार हो जाते है तथा कई बार गलत व आत्मघाती कदम भी उठा लेते है। 
 
ऐसा ना हो इसलिए मृतक के रिश्तेदार मृतक के परिजनों के पास ही रहते है, उसे सांत्वना देते रहते हैं ताकि उसका दुख कम हो सके। 
 
गावों में आज भी किसी कि मृत्यु होने पर लोग कपड़े, घर से अनाज, राशन, फल, सब्जियां इत्यादि लेकर मृतक के घर पहुंचते है। 
 
लोगो द्वारा लाई गई सामग्री से ही भोजन बनाकर लोगो को खिलाया जाता है।
 
रोग ना हो इसलिए ज्यादातर उबला हुआ या सादा भोजन ही बनाया जाता है। 
 
और यह भोजन सबसे पहले समाज के ज्ञानी लोगों यानी ब्राह्मणों को खिलाया जाता था। 
 
पुराने समय में ब्राह्मण ही सबसे शिक्षित होता था और वह हवन एवं मंत्रो के साथ घर में एक सकारात्मक ऊर्जा का प्रसार करता था। 
 
मृत्युभोज पर केवल गायत्री मंत्र का जाप करने वाले ब्राह्मणों को ही खिलाने की परंपरा थी और वह भी उनको खुद ( जिसे हम सीधा कहते है) बनाना पड़ता था।
 
उसके बाद महापात्र को दान के समय मृतक के परिजनों को मृत्यु के संबंध में ज्ञान कि बाते बताई जाती थीं कि मृत्यु ही अंतिम सत्य है व एक दिन सबको इसी गति को प्राप्त करना है इत्यादि। 
 
इससे मृतक के परिजनों को साहस मिलता था जिससे कि वो दुख से उबर पाएं।
 
पुराने समय में सिर्फ राजा महाराजा ही किसी अपने कि मृत्यु पर बड़े पैमाने पर भोज करवाते थे, 
 
लेकिन समय के साथ साथ लोगों ने मृत्यूभोज को अपनी शान व इज्जत के साथ जोड़ लिया तथा वह भी बड़े पैमाने पर मृत्यूभोज करवाने लगा। 
 
इसी दिखावे के चक्कर में कई लोग मृत्युभोज में कर्ज में फस जाते है।
 
जबकि हमारे ऋषि मुनियों ने इसका प्रारूप अलग बनाया था जो अब एक अलग रूप में समाज में चल रहा है। 
 
अतः मृत्यूभोज समाज में व्याप्त कोई बुराई नहीं है बस इसे दिखावे के रूप में ना किया जाए और इसके वास्तविक स्वरूप को ही माना जाए।


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Lav Tripathi

Lav Tripathi is the co-founder of Bretlyzer Healthcare & www.capejasmine.org He is a full-time blogger, trader, and Online marketing expert for the last 12 years. His passion for blogging and content marketing helps people to grow their businesses.

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